बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 55)
आशा की सफलता-जैसे, खेत और बगीचों के भीतर से गाँव की दिवारें दिखने लगीं।
बिल्लेसुर उतावली से बढ़ते गये। गलियारे-गलियारे गाँव के भीतर पहुँचे।
कुएँ की जगत के किनारे नहाने के लिये बनी पक्की चौकी पर बैठे एक वृद्ध सूर्य की ओर मुँह किये काँपते हुए माला जप रहे थे।
कुछ आगे बढ़ने पर बढ़इयों का मकान मिला।
गाड़ी के पहिये बनने की ठक-ठक दूर तक गूँज रही थी। कुछ और आगे दर्ज़ी की दूकान मिली।
वहाँ बहुत-से लोग इकट्ठे दिखे। तरह-तरह के रङ्गीन कपड़े सिलने को आये फैले हुए।
दर्ज़ी सिर गड़ाये तत्परता से मशीन चलाता हुआ। एक लड़का चौपाल की दूसरी तरफ़ बैठा भरी रज़ाई में टाँके लगाता हुआ।
दो आदमी नये कपड़े काटते और मशीन पर चढ़ाने के लिये टाँकते हुए। लोग ग़ौर से रङ्गों की बहार देखते लाठी के सहारे खड़े ग़प लड़ाते तम्बाकू थूकते हुए।
बिल्लेसुर तद्गतेन मनसा सासजी के मकान की ओर बढ़े चले गये। एक कोलिया के भीतर सास जी का अधगिरा मकान था।
दरवाज़े खुले थे। आवाज़ देते हुए भीतर चले गये। सासजी इन्तज़ार कर रही थीं। देखकर मुस्कराती हुई उठीं।
नज़र हण्डी पर थी। बिल्लेसुर ने गर्व से हण्डी रख दी और सास जी के पैर छुए।
सासजीने कुशल पूछी जैसे एक मुद्दत के बाद मुलाक़ात हुई हो; फिर बिछी चारपाई पर ले चलकर बैठाया और गौर से बिल्लेसुर की ब्याहवाली उतावली की आँख देखती रहीं।
कुछ देर तक बिल्लेसुर बैठे गम्भीर होते रहे; फिर आवाज़ में भारीपन लाकर भल, गृहस्थ की तरह पूछा, "ब्याह बिचरवा तो लिया गया होगा?"
सासजी के समन्दर पर जैसे तूफ़ान आ गया।
उद्वेल होकर तारीफ़ करने लगीं; किस तरह पण्डित के यहाँ गईं,––पण्डित ने विचारा,––आँखें चढ़ाकर कहा,––'साक्षात् लक्ष्मी है, घर पर पैर रखते ही घर भर देगी,'––विवाह बहुत बनता है, लड़की वैश्य वर्ण है और देव गण,––बिल्लेसुर से कोई बैर नहीं पड़ता।
साथ ही यह भी कहा कि कुल में ऊँचे हैं, इसलिये बिल्लेसुर यहाँ अपने को छंगे के नहीं तो दुर्गादासवाले ज़रूर कहें, नहीं तो उनकी तौहीन होगी।